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Indian Constitution: भारतीय संविधान के विकास का संक्षिप्त इतिहास का विवरण (1773-1947) | Description of Brief History of Development of Indian Constitution

भारतीय संविधान के विकास का संक्षिप्त इतिहास

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Bhaarateey Sanvidhaan ke vikaas ka sankshipt itihaas ka vivaran

1757 ई. की पलासी की लड़ाई और 1764 ई. के बक्सर के युद्ध को अंग्रेजों द्वारा जीत लिये जाने के बाद बंगाल पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने शासन का शिकंजा कसा । इसी शासन को अपने अनुकूल बनाये रखने लिए अंग्रेजों ने समय - समय पर कई ऐक्ट पारित किये, जो भारतीय संविधान के विकास की सीढ़ियाँ बनीं । वे निम्न हैं— 

1773 ई. का रेग्यूलेटिंग एक्ट:

 इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्व है; जैसे —
  • भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था । अर्थात् कंपनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित किया गया । 
  • इसके द्वारा पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनैतिक कार्यों को मान्यता मिली । 
  • इसके द्वारा केन्द्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी । 

विशेषताएँ : 

  1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जेनरल पद नाम दिया गया तथा मुम्बई एवं मद्रास के गवर्नर को इसके अधीन किया गया । इस एक्ट के तहत बनने वाले प्रथम गवर्नर जेनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स थे । 
  2. इस ऐक्ट के अन्तर्गत कलकत्ता प्रेसीडेंसी में एक ऐसी सरकार स्थापित की गई, जिसमें गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् के चार सदस्य थे, जो अपनी सत्ता के उपयोग संयुक्त रूप से करते थे । 
  3. इस अधिनियम के अन्तर्गत कलकत्ता में 1774 ई. में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे । इसके प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर एलिजाह इम्पे थे ( अन्य तीन न्यायाधीश - 1. चैम्बर्स 2. लिमेंस्टर 3. हाइड ) 
  4. इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया । 
  5. इस अधिनियम के द्वारा, ब्रिटिश सरकार को बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया । इसे भारत में इसके राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया । 

ऐक्ट ऑफ सेटलमेंट, 1781 ई. : 

रेग्यूलेंटिग ऐक्ट की कमियों को दूर करने के लिए इस ऐक्ट का प्रावधान किया गया । इस ऐक्ट के अनुसार कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का प्राधिकार प्रदान किया गया । 

1784 ई. का पिट्स इंडिया ऐक्ट : 

इस ऐक्ट के द्वारा दोहरे प्रशासन का प्रारंभ हुआ— 
  1. बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स – व्यापारिक मामलों के लिए,
  2. बोर्ड ऑफ कंट्रोलर- राजनीतिक मामलों के लिए । 

1793 ई. का चार्टर अधिनियम : 

इसके द्वारा नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों तथा कर्मचारियों के वेतनादि को भारतीय राजस्व में से देने की व्यवस्था की गयी । 

1813 ई. का चार्टर अधिनियम : 

इस अधिनियम की मुख्य विशेषता हैं — 
  1. कम्पनी के अधिकार पत्र को 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया । 
  2. कम्पनी के भारत के साथ व्यापार करने के एकाधिकार को छीन लिया गया । किन्तु उसे चीन के साथ व्यापार एवं पूर्वी देशों के साथ चाय के व्यापार के संबंध में 20 वर्षों के लिए एकाधिकार प्राप्त रहा । 
  3. कुछ सीमाओं के अधीन सभी ब्रिटिश नागरिकों के लिए भारत के साथ व्यापार खोल दिया गया । 
  4. 1813 से पहले ईसाई पादरियों को भारत में आने की आज्ञा नहीं थी, परन्तु 1813 ई. के अधिनियम द्वारा ईसाई पादरियों को आज्ञा प्राप्त करके भारत आने की सुविधा मिल गयी । 

1833 ई. का चार्टर अधिनियम : 

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ हैं — 
  1. इसके द्वारा कम्पनी के व्यापारिक अधिकार पूर्णतः समाप्त कर दिये गये । 
  2. अब कम्पनी का कार्य ब्रिटिश सरकार की ओर से मात्र भारत का शासन करना रह गया । 
  3. बंगाल के गवर्नर जेनरल को भारत का गवर्नर जेनरल कहा जाने लगा । 
  4. बम्बई तथा मद्रास की परिषदों की विधि निर्माण शक्तियों को वापस ले लिया गया । 
  5. विधिक परामर्श हेतु गवर्नर जनरल की परिषद् में विधि सदस्य के रूप में चौथे सदस्य को शामिल किया गया । 
  6. भारत में दास प्रथा को विधि विरुद्ध घोषित कर दिया गया तथा 1843 ई. में उसका उन्मूलन कर दिया गया । 
  7. अधिनियम की धारा -87 के तहत कम्पनी के अधीन पद धारण करने के लिए किसी व्यक्ति को धर्म, जन्मस्थान, मूल वंश या रंग के आधार पर अयोग्य न ठहराए जाने का उपबन्ध किया गया । 
  8. गवर्नर जनरल की परिषद् को राजस्व के संबंध में पूर्ण अधिकार प्रदान करते हुए गवर्नर जनरल को सम्पूर्ण देश के लिए एक ही बजट तैयार करने का अधिकार दिया गया । 
  9. भारतीय कानूनों का वर्गीकरण किया गया तथा इस कार्य के लिए विधि आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी । 1834 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में प्रथम विधि आयोग का गठन किया गया । 

1853 ई. का चार्टर अधिनियम : 

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ हैं— 
  1. इस अधिनियम के द्वारा सेवाओं में नामजदगी का सिद्धान्त समाप्त कर कम्पनी के महत्वपूर्ण पदों को प्रतियोगी परीक्षाओं के आधार पर भरने की व्यवस्था की गयी । इसके लिए 1854 ई. मैकाले समिति की नियुक्ति की गई । 
  2. इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद् के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया गया । इसके तहत परिषद् में छह नए पार्षद जोड़े गए, जिन्हें विधान पार्षद कहा गया ।
1858 ई. का भारत शासन अधिनियम : 
इस अधिनियम की विशेषताएँ हैं —
  1. भारत का शासन कम्पनी से लेकर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में सौंपा गया । 
  2. भारत में मंत्रि - पद की व्यवस्था की गयी । 
  3. पन्द्रह सदस्यों की भारत परिषद् का सृजन हुआ । ( 8 सदस्य ब्रिटिश सरकार द्वारा एवं 7 सदस्य कंपनी के निदेशक मंडल द्वारा ) 
  4. भारतीय मामलों पर ब्रिटिश संसद का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया । 
  5. मुगल सम्राट के पद को समाप्त कर दिया गया । 
  6. इस अधिनियम के द्वारा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स तथा बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल को समाप्त कर दिया गया । 
  7. भारत में शासन संचालन के लिए ब्रिटिश मंत्रीमंडल में एक सदस्य के रूप में भारत के राज्य सचिव ( Secretary of State for India ) की नियुक्ति की गयी । वह अपने कार्यों के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था । भारत के प्रशासन पर इसका सम्पूर्ण नियंत्रण था । उसी का वाक्य अंतिम होता था चाहे वह नीति के विषय में हो या अन्य ब्योरे के विषय में । 
  8. भारत के गवर्नर जनरल का नाम बदलकर वायसराय कर दिया गया । अतः इस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग अंतिम गवर्नर जनरल एवं प्रथम वायसराय हुए ।

1861 ई. का भारत परिषद् अधिनियम : 

इस अधिनियम की विशेषताएँ हैं — 
  1. गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् का विस्तार किया गया, 
  2. विभागीय प्रणाली का प्रारंभ हुआ ( लार्ड कैनिंग द्वारा ), 
  3. गवर्नर जनरल को पहली बार अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी । ऐसे आध्यादेश की अवधि मात्र छः महीने होती थी । 
  4. गवर्नर जेनरल को बंगाल, उत्तर - पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब में विधान परिषद् स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गयी । 
  5. इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई । वायसराय कुछ भारतीय को विस्तारित परिषद् में गैर - सरकारी सदस्यों के रूप में नामांकित कर सकता था । 
नोट : 1862 ई. में लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों - बनारस राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधानपरिषद् में मनोनीत किया । 

1873 ई. का अधिनियम : 

इस अधिनियम द्वारा यह उपबन्ध किया गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी को किसी भी समय भंग किया जा सकता है । 1 जनवरी, 1884 ई. को ईस्ट इंडिया कंपनी को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया । 

शाही उपाधि अधिनियम, 1876 ई. : 

इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल की केन्द्रीय कार्यकारिणी में छठे सदस्य की नियुक्ति कर उसे लोक निर्माण विभाग का कार्य सौंपा गया । 28 अप्रैल, 1876 ई. को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया । 

1892 ई. का भारत परिषद् अधिनियम :

इस अधिनियम की मुख्य विशेताएँ हैं —
  1. अप्रत्यक्ष चुनाव - प्रणाली की शुरुआत हुई, 
  2. इसके द्वारा राजस्व एव व्यय अथवा बजट पर बहस करने तथा कार्यकारिणी से प्रश्न पूछने की शक्ति दी गई । 

1909 ई. का भारत परिषद् अधिनियम ( मार्ले - मिन्टो सुधार ) : 

  1. पहली बार मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व का उपबन्ध किया गया । इसके अन्तर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे ( भारत सरकार अधिनियम के तहत् पहली बार विधायिका में कुछ निर्वाचित प्रतिनिधित्व की मंजूरी ) । इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को साम्प्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना गया । 
  2. भारतीयों को भारत सचिव एवं गवर्नर जेनरल की कार्यकारिणी परिषदों में नियुक्ति की गई । 
  3. केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान - परिषदों को पहली बार बजट पर वाद - विवाद करने, सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रस्ताव पेश करने, पूरक प्रश्न पूछने और मत देने का अधिकार मिला । 
  4. प्रान्तीय विधान परिषदों की संख्या में वृद्धि की गयी । 
  5. सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद् के प्रथम भारतीय सदस्य बने । उन्हें विधि सदस्य बनाया गया । 
  6. इस अधिनियम के तहत प्रेसीडेंसी कॉर्पोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया । 
नोट : 1909 ई. में लॉर्ड मॉर्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत के वायसराय । 

1919 ई. का भारत शासन अधिनियम ( माण्टेग्यू - चेम्सफोर्ड सुधार ) : 

इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ हैं— 
  1. केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गयी – प्रथम राज्य परिषद् तथा दूसरी केन्द्रीय विधानसभा । राज्य परिषद् के सदस्यों की संख्या 60 थी; जिसमें 34 निर्वाचित होते थे और उनका कार्यकाल 5 वर्षों का होता था । केन्द्रीय विधानसभा के सदस्यों की संख्या 144 थी, जिनमें 104 निर्वाचित तथा 40 मनोनीत होते थे । इनका कार्यकाल 3 वर्षों का था । दोनों सदनों के अधिकार समान थे । इनमें सिर्फ एक अन्तर था कि बजट पर स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार निचले सदन को था । 
  2. प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली का प्रवर्तन किया गया ( प्रांतों में द्वैध शासन के जनक ' लियोनस कार्टियस थे । ) । 
  3. इस योजना के अनुसार प्रान्तीय विषयों को दो उपवर्गों में विभाजित किया गया — आरक्षित तथा हस्तान्तरित या अन्तरित। 

आरक्षित विषय : 

वित्त, भूमि कर, अकाल सहायता, न्याय, पुलिस, पेंशन, आपराधिक जातियाँ ( criminal tribes ), छापाखाना, समाचारपत्र, सिंचाई, जलमार्ग, खान, कारखाना, बिजली, गैस, वॉयलर, श्रमिक कल्याण, औद्योगिक विवाद, मोटरगाड़ियाँ, छोटे बन्दरगाह और सार्वजनिक सेवाएँ आदि । 
हस्तान्तरित विषय : 
शिक्षा, पुस्तकालय, संग्रहालय, स्थानीय स्वायत्त शासन, चिकित्सा सहायता, सार्वजनिक निर्माण विभाग, आबकारी, उद्योग, तौल तथा माप, सार्वजनिक मनोरंजन पर नियंत्रण, धार्मिक तथा अग्रहार दान आदि । 
नोट : आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद् के माध्यम से किया जाना था; जबकि हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गर्वनर द्वारा विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से किया जाना था । ( इस द्वैध शासन प्रणाली को 1935 ई. के एक्ट के द्वारा समाप्त कर दिया गया । ) 
 4. भारत सचिव को अधिकार दिया गया कि वह भारत में महालेखा परीक्षक की नियुक्ति कर सकता है । 
 5. इस अधिनियम ने भारत में एक लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया । अतः 1926 ई . ली आयोग ( 1923-24 ) की सिफारिश पर सिविल सेवकों की भर्ती के लिए केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया । 
 6. इस अधिनियम के अनुसार वायसराय की कार्यकारी परिषद् में छह सदस्यों में से ( कमांडर - इन - चीफ को छोड़कर ) तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था ।
 7. इसने सांप्रदायिक आधार पर सिक्खों, भारतीय ईसाइयों, आंग्ल - भारतीयों और यूरोपीयों के लिए भी पृथक निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित कर दिया।
 8. इसमें पहली बार केन्द्रीय बजट को राज्यों के बजट से अलग कर दिया गया । 
 9. इसके अंतर्गत एक वैधानिक आयोग का गठन किया गया जिसका कार्य दस वर्ष बाद जाँच करने के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था । 
 10. इस अधिनियम में केन्द्रीय विधान सभा में वायसराय के अध्यादेश जारी करने की शक्तियों को निम्न रूप में बनाए रखा गया: 
( a ) कुछ विषयों से संबंधित विधेयकों को विचारार्थ प्रस्तुत करने के लिए उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक थी, 
( b ) उसे भारतीय विधान सभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक को वीटो करने या सम्राट के विचार के लिए आरक्षित करने की शक्ति थी, 
( c ) उसे यह शक्ति थी कि विधानमंडल द्वारा नामंजूर किए गए या पारित न किए गए किसी विधेयक या अनुदान को प्रमाणित कर दे तो ऐसे प्रमाणित विधेयक विधान मंडल द्वारा पारित विधेयक के समान हो जाते थे, 
( d ) वह आपात स्थिति में अध्यादेश बना सकता था जिनका अस्थायी अवधि के लिए विधिक प्रभाव होता था । 
नोट : माण्टेग्यू - चेम्सफोर्ड सुधार ( भारत शासन अधिनियम -1919 ) द्वारा भारत में पहली बार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला । उस समय इंग्लैंड का प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज था । 

1935 ई. का भारत शासन अधिनियम :

1935 ई. के अधिनियम में 321 अनुच्छेद और 10 अनुसूचियाँ थीं । इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं— 

अखिल भारतीय संघ : 

यह संघ 11 ब्रिटिश प्रान्तों, 6 चीफ कमीश्नर के क्षेत्रों और उन देशी रियासतों से मिलकर बनना था, जो स्वेच्छा से संघ में सम्मिलित हों । प्रान्तों के लिए संघ में सम्मिलित होना अनिवार्य था, किन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था । देशी रियासतें संघ में सम्मिलित नहीं हुई और प्रस्तावित संघ की स्थापना - संबंधी घोषणा - पत्र जारी करने का अवसर ही नहीं आया । 

प्रान्तीय स्वायत्तता : 

इस अधिनियम के द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था का अन्त कर उन्हें एक स्वतंत्र और स्वशासित संवैधानिक आधार प्रदान किया गया । 

केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना : 

इस अधिनियम में विधायी शक्तियों को केन्द्र और प्रांतीय विधान मंडलों के बीच विभाजित किया गया । इसके तहत परिसंघ सूची, प्रांतीय सूची एवं समवर्ती सूची का निर्माण किया गया ।
( a ) परिसंघ सूची के विषयों पर परिसंघ विधान मंडल को विधान बनाने की अनन्य शक्ति थी । इस सूची में विदेशी कार्य, करेंसी और मुद्रा, नौसेना, सेना, वायुसेना, जनगणना जैसे विषय थे । 
( b ) प्रांतीय सूची के विषयों पर प्रांतीय विधान मंडलों की अनन्य अधिकारिता थी । यानी इस सूची में वर्णित विषयों पर प्रांतीय विधान मंडल को कानून बनाने का अधिकार था । प्रांतीय सूची के कुछ विषय थे— पुलिस, प्रांतीय लोकसेवा और शिक्षा । 
( c ) समवर्ती सूची के विषयों पर परिसंघ एवं प्रांतीय विधान मंडल दोनों विधान बनाने के लिए सक्षम थे । समवर्ती सूची के कुछ विषय थे— दंडविधि और प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह एवं विवाह विच्छेद आदि । 
ऊपर उल्लेखित उपबन्धों के अधीन रहते हुए किसी भी विधान मंडल को दूसरे की शक्तियों का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं था । लेकिन वायसराय द्वारा आपात की उद्घोषणा किये जाने पर परिसंघ विधान मंडल को प्रांतीय सूची के विषयों में विधान बनाने की शक्ति थी । दो प्रांतीय विधान मंडलों की अनुरोध पर भी परिसंघ विधान मंडल प्रांतीय विधान मंडल के विषय में विधान बना सकती थी । समवर्ती सूची के विषयों पर परिसंघ विधि, प्रांत की विधि पर अभिभावी होती थी । इस अधिनियम में अवशिष्ट विधायी शक्ति वायसराय को दी गई थी । 

संघीय न्यायालय की व्यवस्था : 

इसका अधिकार क्षेत्र प्रान्तों तथा रियासतों तक विस्तृत था । इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा दो अन्य न्यायाधीशों की व्यवस्था की गयी । न्यायालय से संबंधित अंतिम शक्ति प्रिवी कौंसिल ( लंदन ) को प्राप्त थी । 

ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता : 

इस अधिनियम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का अधिकार ब्रिटिश संसद के पास था । प्रांतीय विधान मंडल और संघीय व्यवस्थापिका– इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते थे । 

भारत परिषद् का अन्त : 

इस अधिनियम के द्वारा भारत परिषद् का अन्त कर दिया गया । 

साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार : 

संघीय तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में विभिन्न सम्प्रदायों को प्रतिनिधित्व देने के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति को जारी रखा गया और उसका विस्तार दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग तक किया गया । 
इस अधिनियम में प्रस्तावना का अभाव था । 
इसके द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया । अदन को इंग्लैंड के औपनिवेशिक कार्यालय के अधीन कर दिया गया और बरार को मध्य प्रांत में शामिल कर लिया गया । 
इसके अंतर्गत देश की मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई । 
इसने मताधिकार का विस्तार किया । लगभग 10 % जनसंख्या को मत अधिकार मिल गया । 

1947 ई. का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम : 

ब्रिटिश संसद में 4 जुलाई, 1947 ई. को ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम’ प्रस्तावित किया गया, जो 18 जुलाई, 1947 ई. को स्वीकृत हो गया । इस अधिनियम में 20 धाराएँ थीं । इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न हैं – 
  1. दो अधिराज्यों की स्थापना :15 अगस्त, 1947 को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य बना दिये जायेंगे, और उनको ब्रिटिश सरकार सत्ता सौंप देगी । सत्ता का उत्तरदायित्व दोनों अधिराज्यों की संविधान सभा को सौंपी जायेगी । 
  2. भारत एवं पाकिस्तान दोनों अधिराज्यों में एक - एक गवर्नर जनरल होंगे, जिनकी नियुक्ति उनके मंत्रीमंडल की सलाह से की जायेगी ।
  3. संविधान सभा का विधान मंडल के रूप में कार्य करना- जब तक संविधान सभाएँ संविधान का निर्माण नहीं कर लेतीं, तब तक वे विधान मंडल के रूप में कार्य करती रहेंगी । 
  4. भारत मंत्री के पद समाप्त कर दिये जायेंगे । 
  5. 1935 के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा शासन जबतक संविधान सभा द्वारा नया संविधान बनाकर तैयार नहीं किया जाता है, तब तक उस समय 1935 के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा ही शासन होगा । 
  6. देशी रियासतों पर ब्रिटेन की सर्वोपरिता का अन्त कर दिया गया । उनको भारत या पाकिस्तान, किसी भी अधिराज्य में सम्मिलित होने और अपने भावी संबंधों का निश्चय करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी । 
  7. इस अधिनियम के अधीन भारत डोमिनियन को सिंध, बलूचिस्तान, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और असम के सिलहट जिले को छोड़कर भारत का शेष राज्यक्षेत्र मिल गया । 
नोटः सिलहट जिले ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ई. के प्रवृत् होने के पूर्व जनमत संग्रह में पाकिस्तान के पक्ष में मत दिया था ।


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